इतना लम्बा, इतना गहरा, बेसुध क्यों सोते हैं हम ।
दबे पाँव काली रातें आती जाती हैं,
दबे पाँव क्या, कभी बेधड़क हो जाती हैं।
और बस करवट लेकर, सब खोते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम।
नींद है या फिर नशा है कोई,
धीरे धीरे जिसकी आदत पड़ जाती है
झूठ की बारिश में सच की खामोश बांसुरी
एक झोंके की राह देखती सड़ जाती है,
बाद में क्यूं रोते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम ।
धीरे धीरे जिसकी आदत पड़ जाती है
झूठ की बारिश में सच की खामोश बांसुरी
एक झोंके की राह देखती सड़ जाती है,
बाद में क्यूं रोते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम ।
खेत हमारा बीज हमारे,
हैरत क्या अब फसल खड़ी है,
काटनी होगी छांटनी होगी, आज चुनौती बहुत बड़ी है, कांटे क्यूं बोते हैं।
इतना क्यूं सोते हैं हम,
हैरत क्या अब फसल खड़ी है,
काटनी होगी छांटनी होगी, आज चुनौती बहुत बड़ी है, कांटे क्यूं बोते हैं।
इतना क्यूं सोते हैं हम,
सबने खेला और सब हारे, बड़ा अनोखा अजब खेल है
इंजन काला,डिब्बे काले, बड़ी पुरानी ढींठ रेल है
इस रेल में क्यों होते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम,
इंजन काला,डिब्बे काले, बड़ी पुरानी ढींठ रेल है
इस रेल में क्यों होते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम,
लोरी नहीं तमाचा देदो,
एक छोटी सी आशा देदो,
वरना फिर से सो जाएंगे
सपनों में फिर खो जाएंगे ।
चलो पाप धोते हैं हम,
इतना क्यूं सोते हैं हम ।
प्रसून जोशी
एक छोटी सी आशा देदो,
वरना फिर से सो जाएंगे
सपनों में फिर खो जाएंगे ।
चलो पाप धोते हैं हम,
इतना क्यूं सोते हैं हम ।
प्रसून जोशी
6 comments:
Thanks For Sharing these poem on blog. Amazing poem...........
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।.....
By Harivansh Rai Bachchan
I heard this poem first time when you recited it. Later I heard it in Prasoonji's voice on youtube but could remember your recitation & liked that over his, due respect to him as well! :)
May be first time impression is sometimes last impression. :)
Beautiful poem...
Itna kyu sote hai hum........I just heard Prasoon on youtube. Now given a chance I would like to listen to your recitation one day. I see 'someone u no' recommending it.
As for the poem...thought provoking.
@shilpa, the poem depicts life of every middle class Indian :)
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